गुरु का आदेश

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गुरु

गुरु पूर्णिमा को आषाढ़ पूर्णिमा भी कहा जाता है। इस दिन गुरु की सेवा और पूजा की जाती है। ऐसा कहा और माना जाता है कि गुरु बिन ज्ञान नहीं प्राप्त होता है। अतः जीवन के हर पड़ाव में गुरु का रहना बेहद जरूरी है। गुरु का अभिप्राय ज्ञान होता है। गुरु के सानिध्य रहकर उनकी सेवा और भक्ति करने से व्यक्ति को सद्बुद्धि और शक्ति प्राप्त होती है। साथ ही जीवन का मार्ग प्रशस्त होता है।

यह तन विष की बेलरी गुरू अमृत की खान.

 सीस दिए जो गुरू मिले तो भी सस्ता जान.

-कबीर

  एक शिष्य था समर्थ गुरु रामदास जी का जो भिक्षा लेने के लिए गांव में गया और घर-घर भिक्षा की मांग करने लगा।

समर्थ गुरु की जय ! भिक्षा देहिं….

समर्थ गुरु की जय ! भिक्षा देहिं….

 एक घर के भीतर से जोर से दरवाजा खुला ओर एक  बड़ी-बड़ी दाढ़ी वाला तान्त्रिक बाहर निकला और चिल्लाते हुए बोला – मेरे दरवाजे पर आकर किसी दूसरे का गुणगान करता है। कौन है ये समर्थ??

शिष्य ने गर्व से कहा– मेरे गुरु समर्थ रामदास जी… जो सर्व समर्थ है।

  तांत्रिक ने सुना तो क्रोध में आकर बोला कि इतना दुःसाहस कि मेरे दरवाजे पर आकर किसी और का गुणगान करे .. तो देखता हूँ कितना सामर्थ्य है तेरे गुरु में !

मेरा श्राप है कि तू कल का उगता सूरज नही देख पाएगा अर्थात् तेरी मृत्यु हो जाएगी।

  शिष्य ने सुना तो देखता ही रह गया और आस-पास के भी गांव वाले कहने लगे कि इस तांत्रिक का दिया हुआ श्राप कभी भी व्यर्थ नही जाता.. बेचारा युवावस्था में ही अपनी जान गवा बैठा….

    शिष्य उदास चेहरा लिए वापस आश्रम की ओर चल दिया और सोचते-सोचते जा रहा था कि आज मेरा अंतिम दिन है, लगता है मेरा समय खत्म हो गया है।

   आश्रम में जैसे ही पहुँचा। गुरु सामर्थ्य रामदास जी हँसते हुए बोले — ले आया भिक्षा?

  बेचार शिष्य क्या बोले—!

  गुरुदेव हँसते हुए बोले कि भिक्षा ले आया।

शिष्य– जी गुरुदेव! भिक्षा में मैं अपनी मौत ले आया हूँ !  और सारी घटना सुना दी और एक कोने में चुप-चाप बैठ गया।

गुरुदेव बोले अच्छा चल भोजन कर ले।

शिष्य– गुरुदेव! आप भोजन करने की बात कर रहे है और यहाँ मेरा प्राण सूख रहा है। भोजन तो दूर एक दाना भी मुँह में न जा पाएगा।

गुरुदेव बोले— अभी तो पूरी रात बाकी है अभी से चिंता क्यों कर रहा है, चल ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा। ओर यह कहकर गुरुदेव भोजन करने चले गए।

  फिर सोने की बारी आई तब गुरुदेव शिष्य को बुलाकर आदेश किया – हमारे चरण दबा दे!

शिष्य मायूस होकर बोला! जी गुरुदेव जो कुछ क्षण बचे है जीवन के, वे क्षण मैं आपकी सेवा कर ही प्राण त्याग करूँ यहिं अच्छा होगा। ओर फिर गुरुदेव के चरण दबाने की सेवा शुरू की।

गुरुदेव बोले– चाहे जो भी हो जाय चरण छोड़ कर कहीं मत जाना ।

शिष्य– जी गुरुदेव कही नही जाऊँगा।

गुरुदेव ने अपने शब्दों को तीन बार दोहराया कि *चरण मत छोड़ना, चाहे जो हो जाए।

   यह कह कर गुरुदेव सो गए।

शिष्य पूरी भावना से चरण दबाने लगा।

  रात्रि का पहला पहर बीतने को था अब तांत्रिक अपनी श्राप को पूरा करने के लिए एक देवी को भेजा जो धन से सोने-चांदी से, हीरे-मोती से भरी थाली हाथ में लिए थी।

    शिष्य चरण दबा रहा था। तभी दरवाजे पर वो देवी प्रकट हुई और कहने लगी – कि इधर आओ ओर ये थाली ले लो। शिष्य भी बोला– जी मुझे लेने में कोई परेशानी नही है लेकिन क्षमा करें! मैं वहाँ पर आकर नही ले सकता। अगर आपको देना ही है तो यहाँ पर आकर रख दीजिए।

 तो वह देवी कहने लगी कि– नही !! नही!! तुम्हे यहाँ आना होगा। देखो कितना सारा माल है। शिष्य बोला– नही। अगर देना है तो यही आकर रख दो।

तांत्रिक ने अपना पहला पासा असफल देख दूसरा पासा फेंका रात्रि का दूसरा पहर बीतने को था तब तांत्रिक ने भेजा….

शिष्य समर्थ गुरु रामदास जी के चरण दबाने की सेवा कर रहा था तब रात्रि का दूसरा पहर बीता और तांत्रिक ने इस बार उस शिष्य की माँ का रूप बनाकर एक नारी को भेजा।

   शिष्य गुरु के चरण दबा रहा था तभी दरवाजे पर आवाज आई — बेटा! तुम कैसे हो?

शिष्य ने अपनी माँ को देखा तो सोचने लगा अच्छा हुआ जो माँ के दर्शन हो गए, मरते वक्त माँ से भी मिल ले।

वह औरत जो माँ के रूप को धारण किये हुए थी बोली – आओ बेटा गले से लगा लो! बहुत दिन हो गए तुमसे मिले।

शिष्य बोला– क्षमा करना मां! लेकिन मैं वहाँ नही आ सकता क्योंकि अभी गुरुचरण की सेवा कर रहा हूँ। मुझे भी आपसे गले लगना है इसलिए आप यही आ कर बैठ जाओ।

  फिर उस औरत ने देखा कि चाल काम नही आ रहा है तो वापिस चली गई।

  रात्रि का तीसरा पहर बीता ओर इस बार तांत्रिक ने यमदूत रूप वाला राक्षस भेजा।

  राक्षस पहुँच कर उस शिष्य से बोला कि चल तुझे लेने आया हूँ तेरी मृत्यु आ गई है। उठ ओर चल…

शिष्य भी झल्लाकर बोला– काल हो या महाकाल मैं नही आने वाला ! अगर मेरी मृत्यु आई है तो यही आकर मेरे प्राण ले लो,लेकिन मैं गुरु के चरण नही छोडूंगा!

फिर राक्षस भी उसका दृढ़। निश्चय देख कर वापिस चला गया।

  सुबह हुई चिड़ियां अपनी घोसले से निकलकर चिचिहाने लगी। सूरज भी उदय हो गया।

  गुरुदेव रामदास जी नींद से उठे और शिष्य से पूछा कि – सुबह हो गई क्या ?

शिष्य बोला– जी! गुरुदेव सुबह हो गई

गुरुदेव – अरे! तुम्हारी तो मृत्यु होने वाली थी न, तुमने ही तो कहा था कि तांत्रिक का श्राप कभी व्यर्थ नही जाता। लेकिन तुम तो जीवित हो…!! गुरुदेव ने मुस्कराते हुए ऐसा बोला।

शिष्य भी सोचते हुए कहने लगा – जी गुरुदेव, लग तो रहा हूँ कि जीवित ही हूँ। अब शिष्य को समझ में आई कि गुरुदेव ने क्यों कहा था कि — चाहे जो भी हो जाए चरण मत छोड़ना। शिष्य गुरुदेव के चरण पकड़कर खूब रोने लगा  बार बार मन ही मन यही सोच रहा था – *जिसके सिर उपर आप जैसे गुरु का हाथ हो तो उसे काल भी कुछ नही कर सकता है।

    मतलब कि गुरु की आज्ञा पर जो शिष्य चलता है उससे तो स्वयं मौत भी आने से एक बार नही अनेक बार सोचती है।

करता करें न कर सके, गुरु करे सो होय

तीन-लोक,नौ खण्ड में गुरु से बड़ा न कोय

पूर्ण सद्गुरु में ही सामर्थ्य है कि वो प्रकृति के नियम को बदल सकते है जो ईश्वर भी नही बदल सकते, क्योंकि ईश्वर भी प्रकृति के नियम से बंधे होते है लेकिन पूर्ण सद्गुरु नही। इसलिए तो कहते है

   गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय.

 बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय.  

                                                                                कबीरदास

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8 Comments

  1. गुरु की महिमा का बहुत सुंदर व्याख्या.
    बहुत सुंदर लेख

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